साफगोई अच्छी है, या ख़राब ?
ये बहस-मुबाहिसा हो सकता है, पर ये तो तय है , कि साफगोई आसानी से गले नहीं उतरती,
चलो आपको एक किस्सा सुनाते हैं-
30 अगस्त शुक्रवार को हमारे चुनाव-बाबू मुज़फ्फर अली की माता अस्पताल में भर्ती होने के कारण वह मुझसे छुट्टी लेकर बीकानेर रवाना होने को था, उसी समय गुरदयाल सिंह नामक 33 GB निवासी नक़ल लेने आया, मुज़फ्फर ने उसे बताया कि सोमवार को मिल जाएगी, वह उससे नाराज़ होकर शिकायत करने मेरे पास आया, मैंने भी उसे समझाया कि उसकी माता बीमार है, वापस आकर तैयार कर देगा, या मैं किसी दुसरे से तैयार करवा दूंगा, आप चाहे राजी हो या नाराज़ ! पर आज नहीं मिल पायेगी, क्योंकि दूसरी लिपिक अमिता भी छुट्टी पर है , सोमवार को ले जाना,
उसे मेरी साफगोई इतनी नागवार लगी की उसने सीधे मुख्य-मंत्री जी को मेरी शिकायत कर दी, कि -
तहसीलदार महोदय क्रोधित हुए व कहा कि सुबह-सुबह मुंह उठाकर चले आते हो, हमें भी ऑफिस का काम है, इस पर प्रार्थी ने हाथ जोड़कर शालीनता पूर्वक कहा कि हमें यह दस्तावेज़ मिल जावे तो आपकी मेहरबानी होगी, लेकिन तहसीलदार साहब ने गुस्से में कहा, कि आप मेरे आफिस से निकल जाओ, नहीं तो धक्के मारकर निकलवा देंगे, जा तेरे कागजात की नक़ल नहीं मिलेगी, जो कुछ करना है, कर ले, मैं वोटर-लिस्ट की नक़ल नहीं दूंगा, मेरी ऊपर तक पहुँच है, मेरा श्री विजयनगर वाले कुछ नहीं बिगाड़ सकते, तू क्या चीज है !!
और एक खास बात, महाशय ने उसके बाद आज दो सप्ताह बीत जाने पर भी नक़ल प्रार्थना-पत्र पेश नहीं किया !!
सर्वे भवन्तु सुखिनः,
सर्वे सन्तु निरामया !
मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत !!
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