प्रबुद्धजन सादर वन्दे !
मेरे विचार से हम इस भ्रांति को त्यागें, कि "दलित" शब्द जातिगत विशेषण है!
मेरी दृष्टि में यह घटना प्रधान विशेषण है, जिसे राजनीतिक स्वार्थों ने जन्मजात बना दिया है!
मैंने पीड़ितों को निकट से देखा और महसूस किया है! चाहे वे किसी भी जाति या धर्म के रहे हों, सुबह से शाम तक भूखे प्यासे गर्मी सर्दी बरसात में, तहसीलदार या थानेदार का इन्तजार करते!
फ़िर यह फ़िक्र कि आज साहब न मिले, तो कल की मजदूरी भी नहीं आएगी ! उनकी सिफ़ारिश सिर्फ़ साहब के अलावा दूसरा कोई नहीं होता! फ़िर मेरे जैसा कोई नालायक तहसीलदार खुद अपनी सिफ़ारिश मानने की बजाय, उस पीड़ित को फ़िर कभी आने का कहकर, टाल देता है! और कल, कल ही रहता है, आज नहीं बनता!
क्या वस्तुत: हम न्याय की कुर्सी पर बैठने के हकदार हैं? जरा हम सोच लें !!
मेरे विचार से हम इस भ्रांति को त्यागें, कि "दलित" शब्द जातिगत विशेषण है!
मेरी दृष्टि में यह घटना प्रधान विशेषण है, जिसे राजनीतिक स्वार्थों ने जन्मजात बना दिया है!
मैंने पीड़ितों को निकट से देखा और महसूस किया है! चाहे वे किसी भी जाति या धर्म के रहे हों, सुबह से शाम तक भूखे प्यासे गर्मी सर्दी बरसात में, तहसीलदार या थानेदार का इन्तजार करते!
फ़िर यह फ़िक्र कि आज साहब न मिले, तो कल की मजदूरी भी नहीं आएगी ! उनकी सिफ़ारिश सिर्फ़ साहब के अलावा दूसरा कोई नहीं होता! फ़िर मेरे जैसा कोई नालायक तहसीलदार खुद अपनी सिफ़ारिश मानने की बजाय, उस पीड़ित को फ़िर कभी आने का कहकर, टाल देता है! और कल, कल ही रहता है, आज नहीं बनता!
क्या वस्तुत: हम न्याय की कुर्सी पर बैठने के हकदार हैं? जरा हम सोच लें !!
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